परम ऋत ( ऋतम् ) का तत्वज्ञान : 2


ऋग्वेद ४.२३.८- १० का देवता ऋतम् है । वैदिक साहित्य में ऋतम् की व्याख्याओं के अनपेक्ष, लैटिन / अंग्रेजी भाषा में रिदम् (rhythem) शब्द उपलब्ध होता है जिसका अर्थ सामञ्जस्य (harmony) लिया जाता है । यह शब्द वैदिक साहित्य के ऋतम् के अर्थ की व्याख्या करने में सफल प्रतीत होता है । वैदिक निघण्टु में तो ऋतम् की परिगणना उदक और सत्य नामों के अन्तर्गत और ऋत की पदनामों के अन्तर्गत की गई है, जबकि सायणाचार्य ने वैदिक ऋचाओं की व्याख्या करते समय ऋतम् का अर्थ यज्ञ ( ऋग्वेद ५.३.९, ६.४४.८ आदि ) और स्तोत्र  ( ऋग्वेद ५.१२.२ , ५.१२.६, ६.३९.२ आदि ) आदि भी किए हैं । ऋतम् का स्तोत्र अर्थ लैटिन के रिदम् के बहुत निकट है क्योंकि स्तोत्र भी तभी उत्पन्न होता है जब सामञ्जस्य उत्पन्न हो जाए ।

RigVeda 4:23:8-10
RigVeda 4:23:8-10

वैदिक निघण्टु, सायण भाष्य आदि में ऋत को सत्य का पर्यायवाची माना जाता है । ऋत और सत्य में अन्तर बताते हुए प्रायः सायण भाष्य में कहा जाता है कि जो मानसिक स्तर पर सत्य है वह ऋत है और जो वाचिक स्तर का सत्य है, वह सत्य है । लेकिन ऋत और सत्य में क्या अन्तर है , इसे हम ऐतरेय आरण्यक २.३.६ के वर्णन के आधार पर समझ सकते हैं । इस वर्णन में एक वृक्ष की कल्पना की गई है जिसका मूल तो अनृतवाक् है और पुष्प व फल सत्यवाक् हैं । कहा गया है कि यदि अनृतवाक् बोली जाएगी तो वह ऐसे होगा जैसे वृक्ष के मूल को उखाड कर बाहर दिखा देना । ऐसा करने पर वृक्ष सूख जाएगा । अतः अनृत वाक् न बोले । इस वर्णन में ऋतवाक् का कहीं नाम नहीं है, किन्तु यह अन्तर्निहित समझा जा सकता है कि इस वृक्ष का स्कन्ध ऋतवाक् का रूप है । इस ऋत का निचला भाग अनृत से जुडा है और ऊपरी भाग सत्य से । वृक्ष के जीवन के लिए अनृत भी आवश्यक है , वह पोषण करता है । इसी प्रकार हमारी देह का पोषण पितर शक्तियां करती हैं, ऐसा वैदिक व पौराणिक साहित्य में कहा जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में अनृत ( अन् – ऋत )को मृत कहा गया है । इसी कारण से भविष्य पुराण में जहां एक ओर ऋतामृत वृत्ति का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर मृत, प्रमृत आदि वृत्तियों का । एक ऋत सत्य से जूडा है तो दूसरा अनृत से ।

ऋत को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें अनृत का अर्थ ऐसे करना होगा कि अनृत अवस्था में केवल जीवन के रक्षण भर के लिए ऊर्जा विद्यमान है, जीवन को क्रियाशील बनाने के लिए नहीं । ऋत अवस्था जीवन में क्रियाशीलता लाती है, पुष्प, फल उत्पन्न कर सकती है । जीवन में जो भी कामना हो, वह सब ऋतम् का भरण करने से पूर्ण होगी ( द्र. आश्वलायन श्रौत सूत्र ९.७.३५, बौधायन श्रौत सूत्र १८.३२ व १८.३४ में ऋतपेय नामक एकाह )। ऋतम् जीवन की एक अतिरिक्त ऊर्जा है । जब हम सोए रहते हैं तो वह अनृत अवस्था कही जा सकती है । उसके पश्चात् उषा काल की प्राप्ति होने पर सब प्राणी जाग जाते हैं । जैसा कि उषा शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, यह उषा अव्यवस्था में, एन}ट्रांपी में वृद्धि का सूचक है ।

भागवत पुराण में ऋत की माता नड्वला का उल्लेख आता है । तुलना के लिए, ऋग्वेद १.१४२.७ में नक्तोषासा मातृ – द्वय, ५.५.६ में दोषा – उषा मातृद्वय, ६.१७.७ में रोदसी, ९.३३.५ में ब्रह्मी, ९.१०२.७ में ?, १०.५९.८ में रोदसी का ऋत की माता के रूप में उल्लेख है ।

तैत्तिरीय संहिता ७.१.१८.२ तथा आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १०.९.८ में ऋत की पत्नी दीक्षा होने का उल्लेख है । अथर्ववेद ७.६.२ तथा तैत्तिरीय संहिता १.५.११.५ में अदिति को ऋत की पत्नी कहा गया है जबकि ऋग्वेद १.१२३.९ में उषा का योषा के रूप में उल्लेख है ।

ऋग्वेद १०.१७९.३ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि शृत / पका हुआ शब्द से श का लोप होने पर तथा मृत से म का लोप होने पर ऋत शब्द का निर्माण हुआ होगा । फलित ज्योतिष में कच्चे फल को ऋत का और पके फल को सत्य का प्रतीक माना जाता है ।

ऋग्वेद १.१०५.४ व १५ आदि में पूर्व और नव्य ऋत का प्रश्न उठाया गया है कि कौन सा ऋत पूर्व्य है और कौन सा नव्य ? ऋग्वेद १०.१७९.३ में इसका उत्तर दिया गया है कि शृत होने /पकने के पश्चात् ऋत नवीन हो जाता है । हो सकता है कि पूर्व्य ऋत अनृत से, वृक्ष के मूल से सम्बद्ध हो और नव्य सत्य से, वृक्ष के पुष्पों व फलों से ।

वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर प्रथमजा ऋतस्य ( ऋत से प्रथम उत्पन्न ) का उल्लेख आता है, जैसे द्यावापृथिवी ( अथर्ववेद २.१.४ , ओदन ( अथर्ववेद ४.३५.१ ), आपः देवी ( अथर्ववेद ५.१७.१ ), विश्वकर्मा ( अथर्ववेद ६.१२२.१ ), ६ भूत (अथर्ववेद ८.९.१६ ), ८ भूत (अथर्ववेद ८.९२.१), प्रजापति (अथर्ववेद १२.१.६१ तथा तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.९ ), मृत्यु (तैत्तिरीय आरण्यक ३.१५.२ ), अहं (तैत्तिरीय आरण्यक ९.१०.६ ), श्रद्धा ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.३.२ आदि ) । हो सकता है यह सब ऋत के शृत होने पर उत्पन्न हुए हों । अथर्ववेद ९.५.२१ में ऋत व सत्य को अज ओदन के चक्षु – द्वय कहा गया है जबकि अथर्ववेद ११.३.१३ में ऋत को ओदन का हस्तावनेजन कहा गया है ।

संदर्भ की पूर्णता के लिए, वैदिक साहित्य में ऋतम् के संदर्भ में उपलब्ध अतिरिक्त सूचनाओं की जानकारी का उल्लेख उपयोगी होगा । तैत्तिरीय संहिता १.१.९.३, बौधायन श्रौत सूत्र १.११ आदि में वेदी का स्फ्य नामक काष्ठ के शस्त्र से विभिन्न दिशाओं में स्पर्श करते हैं । दक्षिण दिशा में वेदी ऋतम् होती है, पश्चिम दिशा में ऋतसदन और उत्तर दिशा में ऋतश्री । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में ऋत के सदन का उल्लेख आता है । सदन उस स्थान को कहते हैं जहां देवता आकर विराजमान हो सकते हैं । ऋतम् के संदर्भ में सदन की क्या विशेषताएं हैं, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में ऋत के सदन के उल्लेख आए हैं, जैसे १.८४.४ ( इन्द्र के संदर्भ में ), १.१६४.४७ (सुपर्णों के संदर्भ में ), २.३४.१३ ( मरुतों के संदर्भ में ), ३.७.२ ( अग्नि के संदर्भ में ), ३.५५.१२  ( द्यावापृथिवी ० ), ३.५५.१४ (विश्वेदेवों ० ), ४.२१.३ ( इन्द्र ० ), ४.४२.४ ( ? ) , ४.५१.८ ( उषा ० ), ५.४१.१ ( मित्रावरुण ० ), ७.३६.१ (विश्वेदेवों ० ), ७.५३.२( द्यावापृथिवी ० ), ८.५९.४ ( सप्त स्वसार: ० ), ९.१२.१ ( सोम ० ), १०.१००.१० ( गौ ० ) । शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.२९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १०.३१.२, कात्यायन श्रौत सूत्र ७.९.२५ आदि में सोम राजा की यज्ञ में स्थापना के लिए औदुम्बरी आसन्दी / मंच को ऋतसदनी और आसन्दी पर बिछे कृष्णाजिन को ऋतसदन कहा गया है ।

ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में ऋत के पथ व पन्थ का उल्लेख आता है । पौराणिक साहित्य में यह प्रसिद्ध है कि सूर्य , चन्द्र आदि ऋत के पथ से गमन करते हैं । ऋग्वेद १.१२८.२ में अग्नि, १.७९.३ में अग्नि, ६.४४.८ में इन्द्र, ७.६५.३ में मित्रावरुण, ८.२२.७ में अश्विनौ, ९.७.१ में इन्दव:, ९.८६.३३ में सोम, १०.३१.२ में मर्त्य, १०.७०.२ में नराशंस, १०.११०.२ में तनूनपात्, १०.१३३.६ में इन्द्र तथा शतपथ ब्राह्मण ४.३.४.१६ में चन्द्र से ऋत के पथ से गमन की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ७.६५.३ में तो ऋत के पथ की तुलना नौका से की गई है । ऋत के पन्थ के संदर्भ में ऋग्वेद १.४६.११ में अश्विनौ, १.१२४.३ में उषा, १.१३६.२ में मित्रावरुण, ५.८०.४ में उषा, ७.४४.५ में दधिक्रा, ८.१२.३ में इन्द्र, ८.३१.१३ में मित्रावरुण और अर्यमा, ९.७३.६ में दुष्कृत, ९.९७.३२ में सोम, १०.६६.१३ में विश्वेदेवों, अथर्ववेद ८.९.१३ में तीनों उषाओं, अथर्ववेद १८.४.३ में पितृमेध, तैत्तिरीय संहिता ४.३.११.१ में ३ उषाओं आदि के संदर्भ में ऋत के पन्थ का उल्लेख है । ऋग्वेद ३.१२.७ में इन्द्राग्नी, ३.३१.५ में इन्द्र, ९.९५.२ में पवमान सोम तथा १०.८०.६ में अग्नि के संदर्भ में ऋत की पथ्या का उल्लेख आया है ।

ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में विभिन्न देवताओं के संदर्भ में ऋत की योनि के उल्लेख हैं । ऋत की  योनि क्या है , यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.२ के अनुसार क्षत्र ही ऋत की योनि है । शतपथ ब्राह्मण १.३.४.१६ के अनुसार यज्ञ ऋत की योनि है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१०४ के अनुसार ग्रह ( यज्ञ पात्र ) ऋत की योनि हैं । ऋग्वेद १.६५.४ में अग्नि, ३.१.११ में अग्नि, ३.५४.६ में विश्वेदेवों, ३.६२.१३ में सोम, ३.६२.१८ में मित्रावरुण, ४.१.१२ में अग्नि, ५.२१.४ में अग्नि, ६.१६.२५ में अग्नि, ९.८.३, ९.१३.९, ९.३२.४, ९.३९.६, ९.६४.११, ९.६४.१७, ९.६४.२०, ९.६४.२२, ९.६६.१२, ९.७२.६, ९.७३.१, ९.८६.२५, ९.१०७.४ में सोम, १०.८.३ में अग्नि, १०.६५.७ में विश्वेदेवों, १०.६५.८ में पितर, १०.६८.४ में बृहस्पति, १०.८५.२४ में सूर्या विवाह के संदर्भ में ऋत की योनि के उल्लेख हैं ।

ऋत से सत्य को प्राप्त करने के संदर्भ में ऋग्वेद ३.५४.३ व ४ ( रोदसी के संदर्भ में ), ४.५१.७ ( उषा ० ), ५.६३.१ ( मित्रावरुण ० ), ५.६७.४ ( मित्रावरुण ० ), ६.५०.२ ( विश्वेदेवों ० ), ७.५६.१२ ( मरुतों ० ), ७.७६.४ ( उषा ० ), ९.११३.२ व ४ ( वाक् ० ), १०.१२.१ (द्यावापृथिवी ० ), १०.८५.१ ( आदित्यों व भूमि ० ), १०.१९०.१ ( तप से ऋत व सत्य की उत्पत्ति ० ), तैत्तिरीय संहिता ५.१.५.८ ( ऋत पृथिवी तथा सत्य द्युलोक ० ), अथर्ववेद ११.७.१७ ( उच्छिष्ट में ऋत व सत्य ० ), १२.१.१ ( सत्य बृहद्, ऋत उग्र ० ), १२.५.१ ( ब्रह्मगवी के ऋत में  श्रित तथा सत्य से आवृत होने के ० ), १५.६.५ ( ऊर्ध्वा दिशा के ऋत व सत्य से संबेधित होने )  में ऋत व सत्य के उल्लेख आए हैं ।

ऋग्वेद १.११७.२२ में दधीचि ऋषि द्वारा ऋत में स्थित होकर अश्विनौ को मधु विद्या का उपदेश देने का उल्लेख आता है ।

साभार : Vipin Kumar & Radha Gupta, J-178, HIG Colony, Indore – 452011(India) [http://goo.gl/eax3a3]

क्रिया धातु ‘ऋ’ से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। ‘त’ जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है – सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई ‘ऋतु’  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन ‘ऋत का हिरण्यगर्भ’ हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन ‘क’ कहलाया।

आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री ‘ऋतुमती’ कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया – ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर ‘अधर्म’ है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी – केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।

आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ – चइते चना, बइसाखे बेल …, सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है – लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन ‘छन्द’ की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है।


अंग्रेजी ritual भी इसी ऋत से आ रहा है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। ‘रीति रिवाज’ यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या – एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।

कभी सोचा कि ‘कर्मकांड’ में ‘कर्म’ शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को act किया जाता है। Rit-ual और Act-ual का भेद तो समझ में आ गया कि नहीं? 🙂 

साभार : श्री गिरीजेश राव जी (http://goo.gl/OEN43W)

2 thoughts on “परम ऋत ( ऋतम् ) का तत्वज्ञान : 2

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      Thanks & Regards,
      Chandan.

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