ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व : आदर्श एवं इसकी गरिमा


|| ब्राह्मणत्व जगेगा तो राष्ट्र जगेगा ||

Adi Guru Shankaracharya
Adi Guru Shankaracharya

वज्रसुचिकोपनिषद के प्रारम्भ में ही ब्राह्मण कौन है इससे सम्बंधित प्रश्न पूछे गये हैं :

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेद्वचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम ! तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं आर्म किं धार्मिक इति ||वज्रसूची उपनिषद २ ||

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है ! अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

इस तरह से क्रमशः इसमे अनेक तत्वों को ब्राह्मण मानने से तत्वतः इनकार कर दिया गया है और ब्राह्मण क्या है , ब्राह्मण कौन है इस मूलभूत प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा गया है कि:

तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम ! यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मीषडभावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्बहीश्चाकाशवदनुस्यूतमखंडानन्द स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमापरोक्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दंभाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप्रायः ! अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नासत्येव ! सच्चिदानंदमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानंद ब्रह्म भावयेदि त्युपनिषत !! वज्रसूची उपनिषद ९!! 

तब ब्राह्मण किसे माना जाये ? (इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं – ) जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त ण हो; षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त ; अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त एनी किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता । आत्मा सत्त-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है ! इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है । यही उपनिषद का मत है।

सुविख्यात मनिषी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के शब्दों मे ब्राह्मणत्व की गरिमा निम्नरूपेण परिभाषित की गयी है:

 ” चिंतन और चरित्र की एकता होने पर ही दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता उपलब्ध होती है । कथनी और करनी के बीच का अंतर हट जाये तो व्यक्ति निश्चितरूप से प्रभावशाली हो जाता है । भलाई सिखाई जाये या बुराई यह आगे की बात है , पर चिंतन और चरित्र की एकता तो नितांत आवश्यक है, विशेषतया कुसंसकारों से घिरे हुए लोगों को सुसंस्कारी बनाने के लिये । ऐसे व्यक्तित्व अब क्रमशः घटते जा रहे हैं जो निजी जीवन में आदर्शों की सभी कसौटियों पर खरे उतरें । साथ ही उस विशिष्टता का उपयोग लोकमंगल के लिये जनमानस का परिष्कार करने के निमित्त करने में भावनापूर्ण समग्र तत्परता और तन्मयता के साथ संलग्न रहें । जहाँ यह दोनो बातें मिलती हैं , वहीं ब्राह्मणत्व की क्षमता परिपक्व होती है ।

ब्राह्मण को परमार्थ परायण होना चाहिये तथा लोकसेवा में निरत रहना चाहिये । यदि आदर्शों के अपनाने में निजी जीवन मे तो प्रयोग किया गया, व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, मृदुल व्यवहार आदि का अभ्यास करने में अन्तः संघर्ष तो किया गया , पर उसका मूलभूत उद्देश्य स्वार्थ साधन ही रहा तब भी बात नहीं बनेगी । स्वर्ग , मुक्ति , सिद्धि, चमत्कार, यश, सम्मान , जैसे सवार्थ यदि छूटे नहीं और घूम-फिरकर उसी मलीनता में लिपटा रहा तो प्रयत्न की गरिमा चली जाती है । जिसके भी हृदय मे दया, करुणा का भाव होगा, वह स्नेह की, आत्मीयता की अभिव्यक्ति किये बिना रह नहीं सकेगा । सेवा धर्म अपनाये बिना अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश या श्रेय प्राप्त करने की कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती । स्वार्थसिद्धि में निरत रहना संकीर्णता ही नहीं, क्षुद्रता भी है ।”

कुछ पौराणिक ग्रंथों में भी इन्हीं विचारणा को प्रधान माना गया है:

निवृत्तः पापकर्मेभ्योः ब्राह्मणः से विधीयते ।
शूद्रोSपिशीलसम्पन्नो ब्राह्मणदधिकोभवेत् ॥ भविष्य पुराण . अ. 44।

जो पापकर्म से बचा हुआ है, वही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है । सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है । आचारहीन ब्राह्मण शूद्र से भी गया बीता है । विवेक, सदाचार, स्वाध्याय और परमार्थ ब्राह्मणत्व की कसौटी है । जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, वही सम्पूर्ण अर्थों में सच्चा ब्राह्मण है ।

ब्रह्मणस्य तू देहो यं न सुखाय कदाचन ।
तपः क्लेशाय धर्माय प्रेत्य मोक्षाय सर्वदा ॥ वृहद्धर्ग पुराण 2/44॥

ब्राह्मण की देह विषयोपभोग के लिये कदापि नहीं है । यह तो सर्वथा तपस्या का क्लेश सहने और धर्म का पालन करने और अंत मे मुक्ति के लिये हि उत्पन्न होती है ।

ब्राह्मण का अर्थ है विचारणा और चरित्रनिष्ठा का उत्त्कृष्ट होना । 

तपस्वी का अर्थ है- आदर्शों के निर्वाह में जो संयम बरतना और कष्ट सहना पडता है, उसे दुखी होकर नहीं बल्कि प्रसन्नतापूर्वक सहन करना । ब्राहमण को तपस्वी होना चाहिये, इसका तात्पर्य संयमशीलता से है । संयम की मूलतः चार दिशायें हैं –

1. इंद्रियसंयम 2. अर्थसंयम 3. समयसंयम 4. विचारसंयम । इन्हें साधना अत्यंत आवश्यक है ।

सम्मनादि ब्राह्मणो नित्यभुद्विजेत् विषादिव ।
अमृतस्य चाकांक्षे दव मानस्य सर्वदा ॥ मनुस्मृति 1/162॥

ब्राह्मण को चाहिये कि वह सम्मान से डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे ।

वर्ण व्यवस्था की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को समाज में सर्वोपरि स्थान दिया गया है । साथ ही साथ समाज की महान जिम्मेदारियाँ भी ब्राह्मणों को दी गयीं हैं । राष्ट्र एवं समाज के नैतिक स्तर को कायम रखना , उन्हें प्रगतिशीलता एवं विकास की ओर अग्रसर करना , जनजागरण एवं अपने त्यागी तपस्वी जीवन में महान आदर्श उपस्थित कर लोगों को सत्पथ का प्रदर्शन करना, ब्राह्मण जीवन का आधार बनाया गया ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्र की जागृति, प्रगतिशीलता एवं महनता उसके ब्राह्मणों पर आधारित होती हैं । ब्राह्मण राष्ट्र निर्माता होते हैं , मानव हृदयों में जनजागरण का गीत सुनाता है , समाज का कर्णधार होता है । देश, काल, पात्र के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करता है और नवीन प्रकाश चेतना प्रदान करता है । त्याग और बलिदान ही ब्राह्मणत्व की कसौटी होती है ।

राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे ब्राह्मणों पर ही हैं । राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाने का भार इनपर ही है ।

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः । यजुर्वेद

ब्राह्मणत्व एक उपलब्धि है जिसे प्रखर प्रज्ञा, भाव-सम्वेदना, और प्रचण्ड साधना से और समाज की निःस्वार्थ अराधना से प्राप्त किया जा सकता है । ब्राह्मण एक अलग वर्ग तो है ही, जिसमे कोई भी प्रवेश कर सकता है, बुद्ध क्षत्रिय थे, स्वामि विवेकानंद कायस्थ थे, पर ये सभी अति उत्त्कृष्ट स्तर के ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण थे । “ब्राह्मण” शब्द उन्हीं के लिये प्रयुक्त होना चाहिये, जिनमें ब्रह्मचेतना और धर्मधारणा जीवित और जाग्रत हो , भले ही वो किसी भी वंश में क्युं ना उत्पन्न हुये हों ।

ब्राह्मणासः सोमिनो वाचमक्रत , ब्रह्म कृण्वन्तः परिवत्सरीणम् ।
अध्वर्यवो घर्मिणः सिष्विदाना, आविर्भवन्ति गुह्या न केचित् ॥ ऋग्वेद 7/103/8 ॥

ब्राह्मण वह है जो शांत, तपस्वी और यजनशील हो । जैसे वर्षपर्यंत चलनेवाले सोमयुक्त यज्ञ में स्तोता मंत्र-ध्वनि करते हैं वैसे ही मेढक भी करते हैं । जो स्वयम् ज्ञानवान हो और संसार को भी ज्ञान देकर भूले भटको को सन्मार्ग पर ले जाता हो, ऐसों को ही ब्राह्मण कहते हैं । उन्हें संसार के समक्ष आकर लोगों का उपकार करना चाहिये ।

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